हम जीते क्यों है?

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हम जीते क्यों है?

शाम का समय है. मैं बनारस में गंगा घाट पर ईरा के साथ बैठा हूँ. दाईं तरफ के ऊपर से दूसरी सीढी के एक किनारे पर. चारों ओर अजीब सा उदासी का माहौल है. दूर कोई शव जलाया जा रहा है. इक्के दुक्के लोग जहाँ तहां बैठे है. लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है. लोग अक्सर सीढ़ियों पर हर तरफ बैठे जा रहे हैं. सामने गंगा शांत गति से बह रही है. चारों ओर के इस हलचल के बीच एक अजीब सी उदासी और शांति का माहौल पसरा है. मैं चारों ओर फैली नीरवता को महसूस कर रहा हूँ, जो अपने विषदंत मेरे अन्दर प्रवेश करती जा रही है. मैं इस नीरवता मे तल्लीन होता जा रहा हूँ कि अचानक इराकी आवाज से मेरी तंद्रा टूट जाती है. मैं माहौल में फैली नीरवता के नागपाश से मुक्त हो जाता हूँ.

“हम जीते क्यों है?” इरा पूछती है.

मैं उसकी के इस सवाल पर चौक जाता हूँ. एक पल के लिए, उसे एकटक देखने लगता हूँ. सोचता हूँ, आखिर ये क्या सवाल हुआ. इसका क्या जवाब दूं. इसी उधेड़बुन में मैं उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बोलता हूँ, “मेरे खयाल से मैं तुम्हारे इन मखमली हाथों को अपने हाथों में जीवन भर  थामे रहने के लिए जी रहा हूँ. तुम्हारी इन नरम होटों से अपना नाम हमेशा हमेशा सुनने के लिए जी रहा हूँ. तुम्हारी मीठी सुरीली आवाज को सुनने के लिए जी रहा हूँ. तुम्हारी इन बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आँखों के जादू में कैद रहने के लिए जी रहा हूँ. तुम्हारी इन काली जुल्फों की छांव मैं जीने की आस के लिए जी रहा हूँ. तुम्हारे पास हमेशा हमेशा रहने के लिए जी रहा हूँ.”

ईरा हंसने लगती है. “तुम्हारी बात बनाने की आदत गयी नहीं है.”

ईरा मेरी दोस्त है. हम एक दूसरे को स्कूल के दिनों से जानते हैं. ईरा यहाँ बीएचयू में मेडिकल के फाइनल ईयर में है. हम कभी कभी एक दूसरे से मिल पाते हैं क्योंकि हम अलग अलग शहर में रहते हैं. शहर किया राज्य में पढ़ते हैं. एक दूसरे को खत वी भूले भटके ही लिखते हैं. पर जब कभी मिलते हैं एक दूसरे से ऐसी बकवास की बाते करते है. सार्थक या निरर्थक जो भी कह लीजिए. पर ऐसी बकवास की बातें करने में हमारी पुरानी आदत है.

एक बार मैने उससे ऐसे ही पूछ लिया, “अच्छा ईमानदारी से बताओ तुम्हारे खयाल से प्रेम क्या है?”

ईरा छूटते ही बोलीं, “सुविधा.”

“वो कैसे?” मैने पूछा.

हँसते हुए बोली, “कवि महाराज ये कहानी फिर सही. अभी चाय की तलब का समाधान किया जाए.”

“जैसी इक्षा साहेबा की.” कहकर हम चल पड़े.

ईरा अक्सर ऐसे बकवास के मौके पर मुझे कविजी या कभी महाराज से संबोधित करती है. और मैं उसे साहिबा या देवी जी कह कर संबोधित करता हूँ. ऐसा कभी कभी होता है. वैसे हम एक दूसरे को उसके नाम से ही पुकारते है.

गंगा घाट

हमारा एक दूसरे से इस प्रकार का बकवास चलता ही रहता है. तभी अचानक पूरा घाट रौशनी से जगमगा उठा. लगा मानों किसी ने जादू कर दिया हो. आबरा का डाबरा. गंगा के कल कल बहते पानी में घाट का रंग बिरंगा अक्स आलौकिक लगने लगा था. चारों तरफ हलचल सी होने लगी थी. मानों कोई नींद से जाग गया हो. पूरा वातावरण जीवंत हो उठा था. घंटियों और मंत्रोच्चारण से वातावरण भक्तिमय हो गया था. हम कुछ देर तक इस आलोकिक माहौल में खोए रहे. फिर अनायास हीमैं इरा के हाथ को पकड़े हुए बोल पड़ा, “और हम जीते हैं इस आलौकिक पल को सदा के लिए अपनी यादों में सहेजनें के लिए.”

“बहुत बढ़िया कवि जी अब चलिए कल आपका पेपर है.” ईरा बोली.

दूसरे दिन जब मैं इम्तहान हॉल से बाहर निकला ईरा घबराई हुई, परेशान सी खड़ी थी. मुझे देखते ही बोली, “घर से तार आया है मम्मी बीमार है जल्द आने को कहा है मैं निकल रही हूँ देखो अब कब किस्मत में मिलना लिखा है.”

 “घबराओ मत, ऊपर वाला सब ठीक करेगा.” मैने ढांढस बढ़ाते हुए कहा.

और वो चली गयी. वो दिन है और आज का दिन हम ना तो एक दूसरे को देख पाए हैं और ना ही बात कर पाए हैं. यही नहीं मैं ये भी नहीं जानता अभी वो कहाँ है, और कैसी है. मैने खत लिखकर भी देखा कोई जवाब नहीं आया.

 ज़िंदगी का ये खेल भी अजीब है. समय दबे पांव आता है  फुसफुसआ कर आबरा का डाबरा कहता है. अपना रंग चुपके से भरता है और चुपके से दबे पांव चला जाता है. हमारे लिए उम्र भर के वास्ते एक खलिश छोड़ जाता है. हम उसके जादू मैं बंध जाते हैं विवश. शायद यही इसका ढंग है. शायद यही इसकी खूबसूरती है. शायद यही इसका रंगीन जादू है. हम सभी अपना सलीब धोते रोते गाते मुस्कुराते जीते रहते हैं. फूल प्रूफ सफर पर फुलस्टाप तक. वैसे किसी ने ठीक ही कहा है, ना कोई वादा ना कोई उम्मीद फिर भी मुझे तुम्हारा इंतज़ार करना था. मैं भी वही इंतज़ार कर रहा हूँ. शायद यह ढंग है जीवन का इंसान को सिखाने का, तुम डाल डाल हम पात पात.

                                      कैद लम्हे से

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